प्राचीन समय की बात है भगवान श्री गणेश गंगा के तट पर भगवान विष्णु के घोर ध्यान में मग्न थे। गले में सुन्दर माला , शरीर पर चन्दन लिपटा हुआ था और वे रत्न जड़ित सिंहासन पर विराजे थे उनके मुख पर करोडो सूर्यो का तेज चमक रहा था वे बहुत ही आकर्षण पैदा कर रहे थे।
इस तेज को धर्मात्मज की यौवन कन्या तुलसी ने देखा और वे पूरी तरह गणेश जी पर मोहित हो गई तुलसी स्वयं भी भगवान विष्णु की परम भक्त थी उन्हें लगा की यह मोहित करने वाले दर्शन हरि की इच्छा से ही हुए है उसने गणेश से विवाह करने की इच्छा प्रकट किया लेकिन भगवान गणेश ने कहा कि वह ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं और विवाह के बारे में अभी बिलकुल नहीं सोच सकते विवाह करने से उनके जीवन में ध्यान और तप में कमी आ सकती है इस तरह सीधे सीधे शब्दों में गणेशजी ने तुलसी के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
तुलसी का गणेश जी को श्राप :
धर्मपुत्री तुलसी यह सहन नहीं कर सकी और उन्होंने क्रोध में आकर उमा पुत्र गजानन को श्राप दे दिया की उनकी शादी तो जरुर होगी और वह भी उनकी इच्छा के बिना।
गणेश जी का तुलसी को श्राप :
ऐसे वचन सुनकर गणेशजी भी चुप बैठने वाले नहीं थे और उन्होंने भी श्राप के बदले तुलसी को श्राप दे दिया की तुम्हारी शादी भी एक दैत्य से होगी। यह सुनकर तुलसी को अत्यंत दुःख और पश्चाताप हुआ उन्होंने गणेश जी से क्षमा मांगी और भगवान गणेश दया के सागर है वे अपना श्राप तो वापस ले न सके लेकिन तुलसी को एक महिमा पूर्ण वरदान दे दिए।
गजानन का तुलसी को वरदान:
दैत्य के साथ विवाह होने के बाद भी तुम विष्णु की प्रिय रहोगी और एक पवित्र पौधे के रूप में पूजी जाओगी तुम्हारे पत्ते विष्णु के पूजन को पूर्ण करेंगे और चरणामृत में तुम हमेशा साथ रहोगी एवं कोई मरने वाला यदि अंतिम समय में तुम्हारे पत्ते मुंह में डाल लेगा तो उसे बैकुंठ लोक प्राप्त होगा।
बाद में वह तुलसी वृंदा बनी और दैत्य शंखचूड़ से उसका विवाह हुआ और भगवान विष्णु ने वृंदा के पतिव्रता धर्म खत्म कर दिया जिससे शंखचूड़ भगवान शिव जी के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुआ और उसी समय अपने पतिव्रता धर्म के साथ हुए छल से क्रोधित वृंदा ने विष्णु को काले पत्थर शालिग्राम में तब्दील होने का श्राप दे दिया।
इसलिए ध्यान रखें गणेश चतुर्थी पूजा विधि या संकष्टी चतुर्थी पर जब भी एकदंत की पूजा करे तो तुलसी जी को उनसे दूर ही रखे।