एक लड़के ने पाठ के बीच में अपने गुरु से प्रश्न किया : "क्या भगवान हमारे द्वारा चढ़ाया गया भोग खाते हैं ? यदि हाँ, तो वह वस्तु समाप्त क्यों नहीं होती और यदि नहीं, तो फिर भोग लगाने का क्या लाभ ?"
गुरु ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया - वे पाठ पढ़ाते रहे !
उस दिन उन्होंने पाठ के अन्त में एक श्लोक पढ़ाया :
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
पाठ पूरा होने के बाद गुरु ने सभी शिष्यों से कहा कि वे पुस्तक देखकर श्लोक कंठस्थ कर लें !
एक घंटे बाद गुरु ने प्रश्न करने वाले शिष्य से पूछा कि उसे श्लोक कंठस्थ हुआ कि नहीं?
उस शिष्य ने पूरा श्लोक शुद्ध-शुद्ध गुरु को सुना दिया !
फिर भी गुरु ने सिर 'नहीं' में हिलाया,
तो शिष्य ने कहा कि आप चाहें, तो पुस्तक देख लें - श्लोक बिल्कुल शुद्ध है !”
गुरु ने पुस्तक दिखाते हुए कहा - “श्लोक तो पुस्तक में ही है , तो तुम्हें कैसे याद हो गया ?” शिष्य कुछ नहीं कह पाया !
गुरु ने कहा “पुस्तक में जो श्लोक है, वह स्थूल रूप में है ! तुमने जब श्लोक पढ़ा तो वह सूक्ष्म रूप में तुम्हारे अंदर प्रवेश कर गया! उसी सूक्ष्म रूप में वह तुम्हारे मन में रहता है ! इतना ही नहीं, जब तुमने इसको पढ़कर कंठस्थ कर लिया, तब भी पुस्तक के स्थूल रूप के श्लोक में कोई कमी नहीं आई !
इसी प्रकार पूरे विश्व में व्याप्त परमात्मा हमारे द्वारा चढ़ाए गए प्रसाद को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करते हैं और इससे स्थूल रूप के वस्तु में कोई कमी नहीं होती ! उसी को हम प्रसाद के रूप में स्वीकार करते हैं !
शिष्य को उसके प्रश्न का उत्तर मिल चुका था !
हे नाथ! हे मेरे नाथ!! मैं आपको भूलूँ नहीं!!!
जय श्री कृष्ण !
जय श्री राम 🙏❤